देहेबुेिचा निश्र्चयो ज्या टळेना | तया ज्ञान कल्पांतकाळी कळेना |
पर ब्रध् ते मीपणे आकळेना | मनी शून्य अज्ञान हे मावळेना ||191||
मना ना कळे ना ढळे रूप ज्याचे | दुजेवीण ते ध्यान सर्वोत्तमाचे |
तया खूण ते हीन दृष्टांत पाहे | तेथे संग निसंग दोनी न साहे ||192||
नव्हे जाणता नेणता देवराणा | न ये वर्णिता वेदशास्त्रा पुराणा |
नव्हे दृश्य अदृश्य साक्षी तयाचा | श्रुती नेणती नेणती अंत त्याचा ||193||
वसे थ्दयी देव तो कोण कैसा | पुसे आदरे साधकूः प्रश्र्न ऐसा |
देहे टाकिता देव कोठे रहातो | परी मागुता ठाव कोठे पहातो ||194||
वसे थ्दयी देव तो जाण ऐसा | नभाचेपरी व्यापकू जाण तैसा |
सदा संचला येत ना जात कांही | तयावीण कोठे रिता ठाव नाही ||195||
नभी वावरे जो अणूरेणू कांही | रिता ठाव या राघवेवीण नाही |
तया पाहता पाहता तेचि जाले | तेथे लक्ष आलक्ष सर्वै बुडाले ||196||
नभासारिखे रूप या राघवाचे | मनी चिंतिता मूळ तूटे भवाचे |
तया पाहता देहबुेाऩ उरेना | सदा सर्वदा आर्त पोटी पुरेना ||197||
नभे व्यापिले सर्व सृष्टी आहे | रघूनायका ऊपमा ते न साहे |
दुजेवीण जो तोचि तो हा स्वभावे | तया व्यापकू व्यर्थ कैसे म्हणावे ||198||
अती जीर्ण विस्तीर्ण ते रूप आहे | तेथे तर्कसंपर्क तोही न साहे |
अती गूढ ते दृढ तत्काळ सोपे | दुजेवीण जें खूण स्वामीप्रतापे ||199||
कळे आकळे रूप ते ज्ञान होता | तेथे आटली सर्वसाक्षी अवस्था |
मना उन्मनी शब्द कुंठीत राहे | तो गे तोचि तो राम सर्वत्र पाहे ||200||
कदा ओळखीमाजि दूजे दिसेना | मनी मानसी द्वैत कांही वसेना |
बहुता दिसा आपुली भेटि झाली | विदेहीपणे सर्व काया निवाला ||201||
मना गूज रे तूज हे प्राफ्त जाला | परी अंतरी पाहिजे यत्न केले |
सदा श्रवणे पाविजे निश्र्चयासी | धरी सज्जन संगती धन्य होसी ||202||
मना सर्वही संग सोडून द्यावा | अती आदरे सज्जनाचा धरावा |
जयाचेनि संगे महादुःख भंगे | जनी साधनेवीण सन्मार्ग लागे ||203||
मना संग हा सर्व संगास तोडी | मना संग हा मोक्ष तत्काळ जोडी |
मना संग हा साधका शीघ्र सोडी | मना संग हा ेमत निशेष मोडी ||204||
मनाची शते एकता दोष जाती | मतीमंद ते साधना योग्य होती |
चढे ज्ञान वैराग्य सामर्थ्य अंगी | म्हणे दास विश्र्वासता मुक्ति भोगी ||205||
– श्री रामदासस्वामी लिखित मनाचे श्लोक (क्रमशः)
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