मनमे एक आरजू थी के प्रभु मिल जायेगा
दिलकी धडकन कहती के उसे अपनेमेंही पायेगा
आंख सबतरफ ढूंडती है हर एक कण में
फिरभी दृष्टी असमर्थ हैं उसे पहचाननेमें
ध्वनी की लहरे हर तरफ गुंज उठती
कानोंके सहारे आवाज उसकी ना सुनी जाती
महक उठती हवा खुशबूदार गंधोंसे
पहचाने उसे कहां बगीचेके फूलोंसे
बीती कितनी जींदगीयां उसकी खोज करनेमें
कमजोर पडती है इंद्रिया उसे जान जानेमें
आ तू इन्सानका रुप लेकर के तुझको मै देख पाऊं
या मुझको दिव्य शक्ति देकर के तुझमें मैं समा जाऊं
डॉ. भगवान नागापूरकर
९००४०७९८५०
bknagapurkar@gmail.com
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