पचास साल हुए जिंदगीके, गोल्डन ज्युबली मनायी गयी ।
हंगामा और जल्लोष मे, पूरा दिन पूरी रात गयी ।।
सारे बच्चे और रिश्तेदार, जमा हुए इकठ्ठा ।
फिर पडोसवाले क्यूं रहेंगे पिच्छे, जब खानेको था मिठा ।।
सबने तारिफ की पचास साल, जिंदगी के ऊपर ।
हम तो बहूत खुष हुए सुनकर, उसे पहीली बार ।।
जीन जीन चिजोंको किसीने आजतक ना जाना ।
जीन गुणोंको हमनेही ना पहचाना ।।
वो हमारेमे संकरीत है, उसकी दिगयी हमे कल्पना ।
आदर्शवाद, सच्चाई और प्यार के पूजारी ।
देखी किसीने हमारे मे थे बाते सारी ।।
आचंबेके साथ सोंच रहे थे गंभीरतासे ।
के इन गुणोंका पता उन्हे लगा कैसे ।।
जीन गुणोंका अर्थ हमने, आज तक ना जाना ।
कैसे मिला उनका उन्हे ठिकाना ।।
जो कुवेमेही नही था, वो बालटी मे कैसे आया ।
और इन बातोंका हमे आश्चर्य हुआ ।।
शायद यह हो सकती है पार्टी की मिठाईयां ।
नैतीक दबाव उनपर जीस वझेसे आया ।।
खिलानेवाले की कुच तो इज्जत करो ।
उसके आसलीयत पर मत उतरो ।।
कमसे कम इतनी उमरबाद, होने दोजी खूष उसे ।
सोचा हुंगा किसीने, मन मे ऐसे ।।
कलतक दे रहे थे जो गालीयां ।
दिखी आज हमारेमे उनको खुबीयां ।।
चार झुठ एक सच्चे के बराबर, जब रेटकर कहा जाता है ।
और किसीकी तारीफ, हकीकत बनती ।।
जब आखों मे पानी लाकर कहा जाता है ।
यह तो पता हुआ उनकी तारीफ से ।।
के आसलीयत मे जिंदगी होनी चाहीए कैसी ।
इन ताऱिफ और गुलदस्तोकी चौकटने प्रसन्न किया हमारा चित्त ।।
और ख्यालोंकी दुनीयांने बिती सारी रात ।
करवटे बदलते बदलते सोचना मजबूर किया ।।
के जो कुछ जिंदगी मे सच्चा हुआ, तुने क्या पाया ।
जिंदही का मकसद क्या, जरा सोच इन बातों पे ।।
यही विचार झाकने लगा मन मे, उमरके इस मोड पे ।
रईस बापकी इकलोती आवारा आवलाद ।।
देखी हमने पैसोको करते बरबाद ।
लक्ष्मी के मोलको वो गधा जानेगा कैसे ।।
वह तो समझताहै पैंसो को पानी जैसे ।
समयका मोल हमने किया उस आवारा भाती ।।
और खो बैठे वो महान संपत्ती ।
गया वख्त फिर हात आता नही ।।
बचपन मे शिक्षकने घोल घोलकर बाते कही ।
अर्थ उन पक्तीओंका तो हम जान गये थे ।।
पर मतलब से उसके बहूत दूरी पर थे ।
पचास साल जानेके बाद, पंक्तीओंका दोहरा रहे है करते याद ।।
पर अब तो ये बेफूझूलकी हुई ना बाते ।
दुनीयांके चक्करको कैसे वापीस फिराते ।।
पेंडीग रखो इन बातोंको, फूरसतसे करेंगे हम उनको ।
कर दिया इन्ही बेफीकीर आदतोंनो सर्वनाश ।।
और समय खो जाने पर आता था हमे होश ।
खेल कुद और तंदुरस्ती को जान ।।
विद्यार्थी दशा मे नही हुयी इसकी पहचान ।
समझते थे खाईंगे पियेंगे बनेगे नवाब ।।
खेलेंगे पढेंगे बनेंगे खराब ।
चार बच्चोंका अड्डा जमाए, झाडके तले बैठते थे ।।
और दुसरे दोस्त, जो खेल रहे, उनपर कॉमेट्स करते थे ।
बगैर खेले मैदान मे, खेलोंपर करते थे मार्गदर्शन ।।
किसीसे कुछ सुना, या अकबारपढा, यही था हमारा ग्यान ।
बातें बनाना यही कला, हमने सिखी पढाईके जमानेसे ।।
और उमरके हिसाबसे जो मिला ग्यान, निकालते उगालकर दिमागसे ।
उन बातो मे ना कुछ अनुभव था, ना अभ्यास किया पंक्ती ।।
बकते थे भडाभड जो मुहसे निकल आती ।
खेल कुद मे रहे पिछए और लिख पढाईमे निचे ।।
इसी कारण जिंदगी मे रहे कच्चे ।
ग्यानी अनुभवोंकी थी हमारेमे कमतरता ।।
सिर्फ उमरके अनुभवोंको कोन पुछता ।
अब आपही सोंचो जरा ।।
जीसके जिंदगी मे था खाना पिना मौज उडाना ।
समयको फूकटका माल समझकर बरबाद करना ।।
कैसे इन लोगों ने हमे आदर्शवादी माना ।
यह तो हुआ जबानी जमाखर्चा, क्या झूठ और क्या सच्चा ।।
** पर एक सज्जनने जो कही बात ।
उसमे दिखी मुझको जिंदगी की हकीकत ।।
उसने सुनाया हमारे तारीफ का राज ।
वही बना जिंदगीके तस्सलीका आवाज ।।
ये दुनीया देखनेमे है खूबशूरत ।
पर काटोंसे भरी हुयी अनगीनत ।।
हर कदमपर जिंदगी के लीए चाहीए झगडा ।
एक एक दिन गीने इन्सान आगे बडा ।।
सोचना पडता था के गया दिन कैसा ।
आनेवाले दिन का नही था भरोसा ।।
यह संसार है बेरहेम, बेदर्द औऱ जालीम ।
इसी जिंदगीमे हम जिये थे ५० साल कमसे कम ।।
— डॉ. भगवान नागापूरकर
९००४०७९८५०
bknagapurkar@gmail.com
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