पृथ्वीचे प्रेमगीत ही कुसुमाग्रजांची एक निसर्गवत्सल, स्थल-कालातीत आणि नितांतसुंदर रचना आहे. ही कविता अन्यभाषिकांपर्यंत पोहचविण्याचा हा प्रयत्न. या हिंदी भाषांतराचे ‘कवितापण’ वाढविण्याच्या दृष्टीने बदल सुचवावेत अशी प्रार्थना.
युगों के पीछे युग जा रहे हैं
करोगे हे भास्कर! कितनी वंचना
कब तक दौडूं परिक्रमा में
कब तक करूं प्रेम की याचना!
न अब जोबन की आस, उमंगें
बुझ गए यौवनदीप सारे
न रही वो आग भी अब
बचे हैं दिल में काले अंधियारे.
दिल में जली है प्रीत की ज्योती
जलती रहेगी आखिर तक
पता नहीं कहाँ जा रही मैं
तू आगे और मैं पीछे बस!
सज-धजकर कितने ही तारें
फेंके सर पर उल्काश्म कितने
लेकिन तुम्हारी मूरत के बिन
घना अंधेरा मेरे जगत् में.
तुम्हारे ही बिखरे हुए
जुटाकर तेजःकण चंद
चाहे मुझे पाना
कब से ये तपस्वी चंद्र.
सुबह दीप्ती-पंख फैलाकर
खड़ा शुक्र मेरे द्वार पर
प्यार दे प्यार! कहे मुझसे
लाल-लाल मंगल शर्माकर.
संन्यास लेके दुख से बैठे
ऋषिकुल में ध्रुवतारा
बिखराके बाल बुलाए मुझे
कभी कोई पुच्छल तारा.
देखकर भव्य तेज तुम्हारा
भायेंगे कैसे जुगनू के बच्चे
इससे की मैं चाहूँ संग दुर्बलों का
तुम मुझसे दूर ही अच्छे!
जलते बदन की आग
बढ जाती है कभी दिलबर
रोंगटें खडे कर
देती हैं कभी
दिल टूटता है याद से ईश्वर.
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